पुनर्जन्‍म


''बहुत हुई यह शल्यचिकित्सा कटे हुए अंगों की,
कब तक यूँ तस्वीर संवारें बदरंगी रंगों की.
बीत गया संवाद-समय, अब करना होगा कर्म;
नए समय की नयी जरूरत है ये पुनर्जन्म''
अब समय मात्र संवाद का नहीं रहा.. समय परिवर्तन का है, परिणामोत्पादक
प्रक्रिया का है, परिणाम का है, पुनर्जन्म का है..
'पुनर्जन्म' हर मर चुकी व्यवस्था का, समाज की शेष हो चुकी रूढ़ियों का,
बजबजाती राजनीति का..
बहुत से शेष प्रश्नों को सामने रखने और उन्हें एक तार्किक परिणति तक
पहुँचाने का एक प्रयास...



प्रयास है ये जानने का कि हम हैं कौन?
यही वह प्रश्न है जिसका उत्तर किसी को नहीं पता..
और आश्चर्य कि कोई जानने का प्रयास भी करता नहीं दिखता..
हर परिचय मृत है.. जो भी लिखेंगे खुद के विषय में वो सब भी उधार का ही तो होगा..
वही होगा जो लोग कहते हैं.. जो लोगों ने ही बनाया है..
सच में क्या है वो तो नहीं ही पता है..
पद है तो वही जो दुनिया से मिला है..
प्रतिष्ठा है वही जो सबने दी है..
और रही बात भूमिका की,
तो भूमिकाएं तलाश रहे हैं अपने हिस्से की..
प्रयास है कि समाज-यज्ञ में अपनी कुछ समिधा लगा सकें..
'पुनर्जन्म' हमारे हिस्से की समिधा का ही एक रूप है..
इसके माध्यम से प्रयास है कि समाज के सुलगते सवालों पर
अपनी और शेष समाज की नज़र को एक मंच दे सकें..
सभी का सहयोग सादर संप्रार्थित है.

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-अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद
(तस्‍वीर गूगल सर्च से साभार)

कमसिन काया के मैदान पर क्‍लीन बोल्‍ड हुआ क्रिकेट

डीएलएफ आईपीएल-3 सम्पन्न हो चुका है। लेकिन इसके बाद भी कई सवाल चुके नहीं है। इसके बहाने सवालों की फेहरिस्त सामने आ खड़ी हुई है। खेल अब तीन घंटे की मनोरंजन फिल्म में तब्दील हो गया है। खिलाड़ी बेचे और खरीदे जा रहे हैं। खिलाड़ी खेल या आनंद के लिए नहीं, बल्कि पैसे के लिए खेल रहा है। प्रतियोगिता की अलग-अलग टीमों के डेयर डेविल्स, रॉयल चैलेन्जर्स, नाइट राईडर्स, डेक्कन चार्जर्स, सुपर किंग्स या किंग्स इलेवन जैसे नाम यह जाहिर करते हैं कि इस मुकाबले की इकलौती शर्त रोमान्च है, खेल नहीं। जैसे अभिनेता अपने शानदार अभिनय से नकली कहानी में जान डाल देते हैं, वैसे ही ये बिके हुए खिलाड़ी अपने खेल से नकली मुकाबले में जान डाल देते हैं।
70 के दशक में कैरी पैकर ने उजली गेंदो, रंग-बिरंगी पोशाकों और रात दिन के मुकाबलों के जरिए क्रिकेट की दुनिया में जो उद्यम किया था, अब वह एक तार्किक परिणति तक पहुंच गया है।
लेकिन मामला महज आईपीएल का नहीं है। प्रश्‍न है क्रिकेट में सेक्स और संसाधन के बढ़ते प्रयोग का। आखिर क्रिकेट दोयम दर्जे की रोमांचक फिल्म तो नहीं है, जिसमें कुछ बदन उघाड़ू दृश्‍य जरूरी हो जाते हैं। आज लोगों की रुचि मैच में लगने वाले चौकों-छक्कों से ज्यादा इसके तुरंत बाद न्यूनतम कपड़ों में खड़ी चीयर लीडर्स की भंगिमाओं पर जाता है। बहस जीत-हार से ज्यादा इस बात पर केन्द्रित होती है कि फैसले के बाद प्रीति जिन्टा ने गले किसको लगाया और शिल्पा शेट्टी किस किस से हाथ मिला रही हैं। आखिर क्रिकेट में सेक्स की इस घुसपैठ का क्या औचित्य है?
जानकार बताते है कि अमेरिका और यूरोप में भी खेलों की अलग-अलग टीमों के साथ बाकायदा उनके चीयर लीडर्स की टीम होती है। यहां भी वही प्रयास है, बिना किसी वैचारिक मुठभेड़ के यह सांस्कृतिक कचरा आयात किया जा रहा है। स्त्री सशक्तिकरण के नाम से भी तर्क रखे जा रहे हैं। सच यही है कि रूढ़ियां जितनी स्त्री-विरोधी है, यह आधुनिकता भी उतनी ही स्त्री-विरोधी है। स्त्री आजादी के नाम पर बाजार आधी अधूरी औरतों को परोसता और उनका दोहने करता है। ...और अब क्रिकेट भी उसका माध्यम बन रहा है। जैसे कुछ वक्त पहले धर्म-गुरूओं और धर्म जगत पर प्रश्‍न उठे थे और लोगों की श्रद्धा कुचली गई थी, उसी तरह आमजन के बीच पूजा जाने वाला क्रिकेट भी अब लोगों की श्रद्धा कुचल रहा है।
क्रिकेट में संसाधन के दुरूपयोग की कड़ियां भी एक-एक करके खुलती जा रही हैं। बात चाहे सुनन्दा, थरूर और ललित मोदी की हो या माल्या, शिल्पा, शाहरुख की, चांदी की चमक से आंखे चैधिंया ही जाती हैं। क्रिकेट से संस्कार खत्म हो रहें हैं। आखिर पूरे देश में शराब परोसने वाले माल्या के पैसे से क्रिकेट का या देश का कौन सा भला करने का प्रयास हो रहा है? सिगरेट कंपनी विल्स के हाथों विश्‍वकप (1996) के आयोजन का खेल क्या था ? आखिर तमाम दलाल अफसर -नेताओं के काले पैसों के कारोबार के लिए क्रिकेट को छोड़ देना किस दृष्टि से उचित है? सरकार बताये कि आखिर दलालों की समानान्तर सत्ता बन चुकी बीसीसीआई को अस्तित्व में बनाए रखने की जरूरत ही क्या है? जिसके अधिकारियों को देश और खेल से ज्यादा पैसे की फिक्र है। दलालों की सत्ता को समाप्त कर सरकार का खेल मंत्रालय क्रिकेट की कमान अपने हाथों में क्यूं नहीं लेना चाहता? आखिर खेल मंत्री से लेकर मंत्रालय के तमाम अधिकारी क्या कैबिनेट की शोभा बढ़ाने के लिए ही बहाल किए जाते है?
बीसीसीआई की भूमिका को लेकर आम जनमानस में भी रोष दिखाई देता है। क्रिकेट प्रसंशक अविनाश विश्‍वकर्मा ने कहा कि आखिर दलालों की इस जमात ने पैसा कमाने के अलावा क्रिकेट के लिए किया ही क्या है? तमाम प्रतिभाषाली खिलाड़ियों का भविष्‍य इन भ्रष्‍ट अधिकारियों के हाथों बर्बाद हो चुका है।
तमाम युवा संगठनों का कहना है कि बीसीसीआई को भंग करके खेल मंत्रालय को क्रिकेट की कमान अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। क्रिकेट के लिए नए नियम बनाए जाने चाहिए। बिके हुए खिलाड़ियों का राष्‍ट्रीय एकादश में चयन प्रतिबंधित होना चाहिए। बिके हुए खिलाड़ी की निष्‍ठा देश या खेल के प्रति नहीं अपने खरीदारों के प्रति होती है। जब देश के राष्‍ट्रीय स्तर के खिलाड़ी माल्या या अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हाथों बिक रहे होते हैं, तो देश की अस्मिता तार-तार होती है। जिन खिलाड़ियों को बिकने का शौक है, उनके लिए राष्‍ट्रीय एकादश के रास्ते बन्द होने चाहिए। क्रिकेट को प्राइवेट लि. कम्पनी का खेल बना देने का खेल कब तक चलेगा? क्रिकेट काली कमाई लगाने का माध्यम बनकर रह गया है। जैसे ही स्विस बैंकों ने अपने यहां जमा किए गए पैसों पर मुंह खोलना शुरू किया, यह काली कमाई वहां से निकल कर क्रिकेट में लगा दी गई। जबसे क्रिकेट में काली कमाई का यह पैसा लगा है, इस का चेहरा भी काला होता जा रहा है। इस खेल के साथ हो रहा यह खिलवाड़ बंद होना चाहिए।
- Amit Tiwari
News Editor

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शिक्षा का अधिकार: ढोल का पोल


मानव ससांधन मंत्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार के कानून और शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाले 86वें संविधान संशोधन कानून को एक अप्रैल 2010 से लागू कराने के काम को अपनी तथा कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया है। इस संबंध में पहली उल्लेखनीय बात तो यह है कि 86वें संविधान-संशोधन की पहलकदमी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने की थी और उस का उद्देश्‍य था कि 14 साल तक के हर बच्चे को शिक्षित करने की जो जिम्मेवारी संविधान ने सरकारों पर डाल रखी थी, उससे सरकारों को मुक्त किया जाए और यह जिम्मेवारी मां-बाप पर डाली जाए। ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि बाजार की व्यवस्था के अंतर्गत सरकारों को केवल बाजार-व्यवस्था की संचालक बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की खिदमत के लिए और सब कामों से मुक्त होना चाहिए। संविधान ने राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांतों के अध्याय के अंतर्गत बच्चों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की थी, जिसका मतलब था यह काम सरकारों को करना होगा। इस प्रावधान को वहां से हटा कर मौलिक अधिकारों के अध्याय में डालने का मतलब है अब हर बच्चे को शिक्षित करना मां-बाप की जिम्मेवारी है और ऐसा न करने पर अदालतें उन्हें दंडित कर सकती है जबकि सरकारें सब जिम्मेवारियों से मुक्त होंगी। क्या अदालत बच्चे के अशिक्षित रहने पर सरकार पर मुकदमा चला सकती है?
दूसरा कानून अर्थात् शिक्षा के अधिकार का कानून, और बड़ा तमाशा है। यह एनजीओ व्यवस्था की, जो बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की व्यवस्था का ही एक हाथ है, नई सूझ है कि हर प्रकार के जीने का अधिकार (शिक्षा का अधिकार भी जीने का अधिकार है) तभी किसी आदमी को मिलता है, जब राज्य कानून बनाकर उसे वह अधिकार देता है। इसके बिना तो किसी को जीने का अधिकार भी नहीं होता। दूसरे शब्दों में जीने के अधिकार सहित तमाम मानव अधिकार राज्य की तरफ से दी गई बख्‍शीश हैं। यह सिद्धांत बड़े तानाशाह और सर्वसत्तावादी बादशाह को शर्मिंदा कर सकता है। इतना बड़ा दावा तो इतिहास में उन्होंने भी नहीं किया होगा, समुंद्र को अपनी लहरें रोकने का आदेश देने वाले काल्पनिक राजा को छोड़ कर। हमारे मानव संसाधन मंत्री इस राजा की भूमिका निभाते लग रहे हैं।
उनका दावा है कि इन कानूनों के बन जाने के बाद अब हम हर बच्चे को शिक्षित करने का लक्ष्य पा लेंगे, जिसका एक चैथाई हिस्सा भी हम पिछले साठ सालों में नहीं प्राप्त कर सके। आज भी हाईस्कूल पार कर कालेजों में जाने वाले छात्रों की संख्या शिक्षा मंत्री के एक बयान के अनुसार 12 प्रतिशत के करीब है। वैसे गैर सरकारी अनुमान तो और भी कम बताते हैं। 70-75 प्रतिशत बच्चे तो हाई स्कूल समाप्त होने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। जो बच्चे स्कूल का दरवाजा ही नहीं देख पाते उनकी तो किसी ने अभी तक गिनती ही नहीं की। फिर भी शिक्षा मंत्री एक अखबार में छपे अपने लेख में कहते हैं कि कुल दाखिले 100 प्रतिशत से ऊपर हैं (दि हिंदू, 1 अप्रैल)। सौ प्रतिशत से ऊपर तो फर्जी आंकड़े ही हो सकते हैं। क्या इसी तरह के आंकड़ो से जनता को बेवकूफ बनाया जाएगा?
कहा गया है कि शिक्षा का अधिकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा से आगे जाता है। उसमें क्वालिटी एज्यूकेशन या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा शामिल है। अगर गुणवता नहीं तो यह बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना होगा। यह क्वालिटी कहां से आएगी? यह हर बच्चे को पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ा कर आएगी। ज्ञान आयोग की यही सिफारिश है। इस देश में क्वालिटी और योग्यता की खान अंग्रेजी ही रही है। हमारे देश में यह देव भाषा है। जो इसे सीख लेता है, वह सर्वगुणसम्पन्न बन जाता है। मनोवैज्ञानिकों और भाषा-शास्त्रियों का कहना है कि भाषा बच्चे का अस्तित्व है, उसके माध्यम से वह अपने होने की घोषणा करता है। हम उससे उसकी भाषा छीन कर उस पर एक अजनबी विदेशी भाषा लादेंगे जिसे वह ठीक प्रकार से कभी नहीं सीख पाएगा और इस प्रकार उसमें क्वालिटी शिक्षा भरेंगे, गोया बच्चे का दिमाग खाली घड़ा है जिसमें कुछ भी ठूंसा जा सकता है। इस पर भी कहा गया है कि शिक्षा बच्चों की पसंद के वातावरण में (चाइल्ड फ्रेडंली) दी जाएगी, जिसमें बच्चा भय, तनाव और घबराहट के बिना षिक्षा ग्रहण कर सकेगा। यह कहते हुए इस बात को बिल्कुल नजर अंदाज किया गया कि 70-80 प्रतिशत बच्चों द्वारा बीच में स्कूल छोड़ने और आधे से ज्यादा बच्चों के फेल होने का सब से बड़ा कारण अंग्रेजी भाषा का खौफ होता है। फिर शत प्रतिशत बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य कैसे पूरा होगा?
यह दावा भी किया गया है कि शिक्षा के अधिकार के कानून को लागू कर शिक्षा में सर्वतोन्मुखी क्रांति लाई जाएगी, जो अब तक अपनाई गई षिक्षा-दृश्टियों को अपने में समेटते हुए सार्वजनिक षिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करेगी। अब तक अलग-अलग हित समूहों ने अलग-अलग दृष्टि अपनाई। प्रशासकों की प्राथमिकता रही कि स्कूल ज्यादा से ज्यादा खुलें, उनमें अधिक से अधिक बच्चे दाखिल हों, स्कूल घर के निकट हों और वहां साज-सामान तथा शिक्षकों की अच्छी व्यवस्था हो। शिक्षा-शास्त्रियों की चिंता रही कि बच्चे बिना बोझ, भय और तनाव के शिक्षा ग्रहण कर सकें, पाठ्यक्रम इतना बोझिल न हो कि ट्यूशन केंद्रों की दुकानें फलें-फूलें। विकास के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों और विभागों की चिंता रही कि स्कूल-शिक्षा कितनी लंबी या छोटी हो और शिक्षा की अंतर्वस्तु क्या हो। अर्थशास्त्रियों को शिक्षा से मिलने वाले प्रतिफल या लाभ की चिंता रही। माता-पिता की मांग रही बच्चों को अच्छी नौकरी तथा आर्थिक कमाई के लिए तैयार करना। इस क्रांतिकारी कानून से सबकी उम्मीदें पूरी होंगी तथा उसके अलावा भी कुछ होगा। इस कुछ और का जिक्र तो नहीं हुआ है किंतु यह साफ है कि यह शिक्षा-क्रांति विश्‍व बाजार के लिए शिक्षित गिरमिटिया सप्लाई करने का काम भी करेगी, जो इस समय भारत के लिए कमाई का सब से बड़ा स्रोत है। शिक्षा में क्वालिटी का मतलब ही है बाजार व्यवस्था के कलपुर्जे बनाने की योग्यता।
ये कानून पास कराकर शिक्षामंत्री ने एक तीर से दो नहीं तीन निशाने साधे हैं। एक तो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती को, जो कांग्रेस की पुरानी संस्कृति का एक मात्र अवशेष था, सबक सिखाया और उसके तमाम किए को अनकिया कर अपनी संस्कृति की छाप छोड़ी। दूसरे, शिक्षा के अधिकार के कानून को श्रीमती सोनिया गांधी से जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली, हालांकि यह अधिकार एनजीओ संस्कृति का एक चालू नुस्खा ही है। कांग्रेस पार्टी को या यूपीए सरकार को इसका क्या लाभ होगा, यह तो भविष्‍य ही बताएगा। किंतु जहां तक शिक्षा की बात है, उनके दोनों कानून शिक्षा को आम जनता की पहुंच से दूर करने तथा भारत के पुश्‍तैनी गुलाम खास वर्गो की सेवा में समर्पित करने के अभीष्‍ट लक्ष्य की पूर्ति अवश्‍य करेंगे। शिक्षा के प्राथमिक ढांचे में तो कोई सुधार नहीं होगा किंतु उच्च शिक्षा के नाम पर कारोबार खूब फले-फूलेगा। चूंकि नये कानून ने बच्चे की स्कूल-पूर्व की शिक्षा की जिम्मेवारी से भी सरकारों को मुक्त कर दिया है, अतः शिक्षा के लुटेरों के हाथ छोटे बच्चों का भविष्‍य भी दिया जा रहा है। यह बात भी सर्वविदित है कि शिक्षा के अधिकार के कानून (आर.टी.आई) के पीछे बहुराष्‍ट्रीय शिक्षा-माफियाओं की लॉबी सक्रिय है, जो धुआंधार प्रचार कर रही है कि यह काम निजी उद्यमों के द्वारा ही हो सकता है और सरकारों को इससे हाथ खींच लेने चाहिए। राज्य को शिक्षा के क्षेत्र से पूरी तरह बेदखल करने की योजना है यह कानून, जिसका श्रेय शिक्षामंत्री खुद भी ले रहे हैं, यूपीए सरकार तथा उसकी अध्यक्ष को भी दे रहें हैं और शिक्षा माफियाओं की मदद भी कर रहें हैं। इस काम को अंजाम देने के लिए शिक्षामंत्री ने विदेशी शिक्षा संस्थान प्रवेश और क्रियान्वयन नियमन विधेयक को भी कैबिनेट से पास करा दिया है, जिसे विद्वान लोग उच्चशिक्षा के क्षेत्र का ‘सेज’ (स्पेशियल इक्नामिक ज़ोन) कह रहें हैं।


- Mastram Kapoor




खोजना होगा आतंकवाद का बुनियादी कारण


आज हमारे देश मे जो आतंकवाद बढ़ रहा है उसका मुख्य कारण क्या है, हमें इन बारीकियों पर नजर दौड़ानी होगी।
हमारे देश में आज मानव अधिकारों का पूर्ण रूप से हनन हो रहा है। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि रोजमर्रा की चीजें भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गयी हैं। सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारी तो फिर भी अपना गुजारा कर लेते हैं, मगर प्राइवेट नौकरी करने वालों के लिए मंहगाई एक चुनौती है। शासन व प्रशासन पूरी तरह भ्रष्ट हो गया है।
कहीं कोई मार्ग नहीं। अब आम नागरिक क्या करे? जिये या मरे? इसी कारण वह अपने मार्ग से भटक रहा है।
मुंबई पर हुए हमले की निंदा चाहे पूरे विश्व भर में हुई हो मगर यह काफी नहीं है। भारत बेशक पकिस्तान के खिलाफ सबूत पेश कर रहा है। मगर इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि हम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं। यह मुंबई पर हमला नहीं यह देश की अस्मिता पर हमला है। हम कब तक अमरीका या दूसरे देशों को यह दिखाते रहेंगे कि देखिए हम पर हमला हुआ है, आप कुछ कीजिए। नहीं बल्कि हमें इजराईल की नीतियां अपनानी होगीं। विश्व विख्यात इजराइल अपने देश के हित में फैसला खुद करता है। पहले दुश्मन को सबक सिखाता है बाद में सुनता है।
आज भारत की उन्नति को देखकर पाकिस्तान ही नहीं बल्कि बड़े और विकसित देश भी ईर्ष्‍या करते है। हमारे राजनेताओं को चाहिए वह यह कह कर कि ‘हम कार्यवाही करेंगे’, समय खराब न करें बल्कि पाकिस्तान जैसे धृतराष्‍ट्र को सबक सिखाना चाहिए।
हमें याद करना चाहिए की पृथ्वीराज चैहान ने गौरी को अनेकों बार हराने के बाद भी जीवित छोड़ा उसका परिणाम कितना भयंकर हुआ, वह इतिहास में दर्ज है। यही गलती हिन्दुस्तान आज भी कर रहा है। हमें अपने देश की सुरक्षा खुद करनी है न कि हमें अमेरिका के भरोसे रहना है। अगर आज हमने ईंट का जवाब पत्थर से न दिया तो पाकिस्तान के हौसले में इजाफा होगा और फिर कई बड़ी घटनाएं होगी, आम नागरिक फिर शहीद होंगे। फिर बयानबाजियां होंगी। सबसे बड़ी जिम्मेदारी हमारे स्वयं की बनती है। मगर लगता है कि हमारे नेता आज नपुसंक हो गये है।
मुझे शास्त्री जी की याद आती है, जिन्होंने कहा था हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे और उन्होंने कर भी दिखाया था। हमें याद करना चाहिए श्रीमति इंदिरा गांधी जी को जिन्होंने पाकिस्तान को हारने पर मजबूर कर दिया था। करीब नब्बे हजार फौजी हथियार सहित गिरफ्तार किये गये थे। पूरी दुनियां ने देखा था कि यह वही भारत है जिसे हम सपेरो का देश कहते हैं। ऐसे जंगजू जिन्होंने एक इतिहास रचा। इससे पहले किसी देश ने दूसरे देश की इतनी बड़ी तादात में फौज का सरेन्डर नहीं कराया था। इस जंग में पाकिस्तान पूरी तरह टूट गया। आज उसी जज्बे की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो पृथ्वीराज चैहान वाला किस्सा आज की पीढ़ी को फिर से देखना पड़े।


- Ishwar Singh

NIRMAN SAMVAD

कहीं पर लूट भी होगी कहीं पर कत्ल भी होंगे


आज हमारे मुल्क में जो हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। चारों तरफ भ्रष्टाचार व आतंक का माहौल बना हुआ है। कानून व्यवस्था पूर्ण रूप से चरमरा गई है। असुरक्षा का माहौल चारों तरफ बना हुआ है। गरीबी व लाचारी में लोग जीवन-यापन करने को विवश हैं, यह एक प्रगतिशील देश की प्रतिष्ठा पर आघात है। सारी सरकारी मशीनरी चौपट सी नजर आती है, कोई भी अपने कार्य को सही दिशा नहीं दे पा रहा है। प्रशासन अपने आपको बेबस और लाचार महसूस करने पर मजबूर है, परंतु इसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है, क्योंकि आज हर कोई अपने आपको पाक-साफ दिखाने की कोशिश में निरन्तर गुनाह किये जा रहा है। अपितु आज किसी भी क्षेत्र में हालात बिगड़े हैं, तो उसके लिऐ हम स्वयं जिम्मेदार है, सुधारवाद की आवाज तो हर कोने-कोने से आती है, मगर हम अपने अन्दर के शैतान को नहीं मारते। हम बड़ी आसानी से अपना दोष दूसरे पर मढ़ देते हैं या फिर सरकार को इसका जिम्मेवार ठहराते हैं। सन् 1947 से आज तक हम एक स्वरूप भारत की कामना तो करते है। परंतु हम आज के हालात पर अगर नजर डालें तो देश की अर्थव्यवस्था, कानून- व्यवस्था तथा न्याय-व्यवस्था अपराध के समुन्दर में डूबी नजर आती है।
जहां तक आतंकवाद का सवाल है, कोई भी शख्स आतंकवादी नहीं बनना चाहता अपितु सामाजिक प्रताड़ना और सामाजिक अव्यवस्था से परेशान होकर वह इस आतंकवाद के रास्ते पर निकलता है। सरकारी मशीनरी आज कितनी काबिल है, वह हम अदालतों में, दफ्तरों आदि में देखते हैं। हर महकमा लापरवाह और आलसी हो चुका है। यदि हर कर्मचारी महीने में मात्र 10 दिन भी ईमानदारी से काम करने लगे तो हिन्दुस्तान को फिर सोने की चिड़िया बनते देर नहीं लगेगी। अतः मैं यही कहूंगा की मुझे खुद ईमानदार बनना होगा।
बुराई का बुंलद स्वर :
लगा दो और भी पहरे
ये ऐलान-ए-कातिल का दावा है
कहीं पर लूट भी होगी
कहीं पर कत्ल भी होंगे।

- Dinesh Kumar


जलमेवममृतम्, इदम जलमौषधम्


‘‘जलमेवममृतम्, इदम जलमौषधम्।।’’ कहकर जल की महत्ता और उसकी उपादेयता को श्रेष्‍ ठता प्रदान करने वाला देश, सभी प्रकार के जलस्त्रोतों, जल-संग्रह स्थलों तथा जलों को पूज्य मानने वाले देश में, जल के देवता श्री वरूण देव की प्रसन्नता हेतु सदैव जलस्थलों, जल के आसपास के क्षेत्र तथा जलों को पवित्र, स्वच्छ, सुन्दर रखने का अभ्यासी जन समुदाय वास करता रहा है। राज्य और प्रजाजन सभी जलों का समादर करते रहे हैं। इस हेतु के राजकीय, सामाजिक, सामुदायिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक और व्यक्तिगत आचरण तथा आचार संहिता भी प्रयोज्य थी।
किन्तु आज राज्य से लेकर व्यक्ति और व्यावसायिक समूहों तक सभी उसी अमृतमय जल को, उसी औषधिमय जल को विषमय करने के उपादानों में दिनरात लगे हैं। शहरों के मलमूत्र से लेकर कारखानों के रासायनिक विषैले पानी के नाले और चमड़े के पानी के नाले पवित्र जलों को बरबाद कर चुके हैं।
आज जब संपूर्ण विश्‍व और स्वयं भारत तथा इसके समस्त महानगर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं, उस समय भी दृष्टिहीन मानवजाति कितनी भयावह गति से जलों के विनाश पर डटी हुई है। आने वाले समय में निश्चित ही यह स्थिति इससे भी विकट होगी। आज गंदे नालों का पानी अपेक्षाकृत साफ और महानगरीय प्राकृतिक नदियों का पानी अधिक गंदा दिखता है। जिनका चुल्लू भर जल पीकर मानव प्राण तृप्त कर लेता था, उन सरिताओं के चुल्लू भर जल को जनगण आज तरसता है।
यह सभ्यता, यह विकास अपनी ही समूल हानि का प्रयास है, जो एक दिन अवश्‍य ही हमारे अपने लिए ही चुक जाने का कारण बनने वाला है। यह प्रदुषण जल, वायु, अग्नि, आकाश, पर्यावरण सर्वत्र ही तो फैला हुआ है। आखिर क्या होगी इसकी अन्तिम परिणति ?
ऐसा नहीं कि नदियों, जलों के संरक्षण की योजनाएं नहीं चल रही हैं। अब तक केवल भारतवर्ष में ही सैकड़ों अरब रुपये इस हेतु व्यय हो चुके हैं। किन्तु विचारणीय यह है कि इस दिशा में हमारी उपलब्धि क्या है ? क्या इतने व्यय के बाद भी हम देश की एक भी नदी को पवित्रता या शुद्धता के स्तर तक वापस ले जा सके हैं ? नहीं!!
प्रश्‍न यही है कि आखिर ये नाले, नदियों में ही क्यों गिराए जाते हैं ? इनके लिए कोई अन्य विसर्जन स्थल क्यों नहीं तैयार किया जा रहा है ? नदियों को पूर्ण प्राकृतिक अवस्था में ही क्यों नहीं बहने दिया जा रहा है।


- Dr. Kamlesh Pandey



समीपस्थ विनाश को रोक पाने का सामर्थ्‍य भारत-दर्शन में ही


साम्राज्यवाद के प्रतिकार का स्वरूप आधुनिक विकास के रूप में उभरने आया तो सम्भावनाओं का नया सूर्य उदित होता सा लगा था। किन्तु जब वह अपने युवावय के मोड़ पर पहुंचा तो क्लास, क्लासीफिकेशन और स्टेटस सिम्बल जैसी नई साम्राज्यवादी सामाजिक संज्ञाओं के रूप में सीमांकन ही नहीं कर रहा, अपितु साम्राज्यवाद के क्रूरतम हृदयहीन मापदण्डों से भी आगे जाता हुआ दिख रहा है।
कोपेनहेगन या अन्य किसी भी प्रकार के जीवन संभावनाओं की तलाश के प्रयासों की सार्थकता की बात करने से पूर्व ही प्रश्न उठता है कि इसके लिए किस प्रकार की विचारधारा और जीवन-दर्शन को आधार बनाया गया है ? क्या समाज के सभी वर्गों और समाज के समस्त जीवन पहलुओं की वास्तविक मीमांसा के मंच पर नई संभावनाओं की खोज की जा रही है, अथवा किसी विशेष सीमा-रेखा के दायरे में ही कुछ लोग तथाकथित बुद्धिजीविता का प्रदर्शन करते हुए नवयुग के लिए कुछ नई सीमाएं तय करने वाले हैं ?
जीवन और जीवन-दर्शन की गंभीरता तथा गहनता को जाने बिना किसी भी प्रकार से विश्व को बचाने की अवधारणा पर काम करने का प्रयास अंततः एक असफल आयोजन ही सिद्ध होता है। इस दृष्टि से, निश्चय ही भारतीय चिंतन की ज्ञानधारा जीवन के लिए सदैव से सहजीवन, सह-अस्तित्व और परिणाम में शुभकारी विचारधाराओं एवं जीवन पद्धति की पोषक रही है।
ऐसे अनेकों प्रकार के जीवन-दर्शन भारतीय वाड्.मय में उपलब्ध हैं जिन्हें जीवन में अपनाकर विश्व के समस्त भूभागों में मनुष्य जीवन, अन्य जीवों का जीवन, प्रकृति, पर्यावरण, जल, वायु, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, वन तथा जीवन संभावनाओं और जीवन के संसाधनों को न केवल अधिकतम समय तक विश्व में बनाए रखा जा सकता है, अपितु पूर्व में किए गए मनुष्यकृत प्रकृति के नुकसान की भी ठीक-ठीक भरपाई की जा सकती है।
भारतीय जीवन-दर्शन इस संपूर्ण प्रकृति, धरा तथा अन्य जीवों को स्वयं अपना ही अंश मानकर उसे जीने के प्रयासों की पोषकता के सिद्धान्त देते रहे हैं। इनकी अवहेलना करती हुई मनुष्य जाति अपने, प्रकृति के, अन्य जीवों के तथा धरा के समग्र विनाश का कारण बनने की कगार पर आ खड़ी हुई है।
अभी समय है, किन्तु यह अन्तिम क्षण हैं, जहां से यदि वापस लौट लिया जाए और भारतीय जीवन पद्धति को विश्व के लिए अधिकृत जीवन पद्धति घोषित करके उसे शत प्रतिशत लागू किया जा सके, तो निश्चय ही धरा, धरातल, अन्तरिक्ष, वायु, जल, प्रकृति, मनुष्य-जाति, अन्य जीव, वनादिकों को बचाया जा सकता है; अन्यथा समीपस्थ विनाश को रोक पाने का सामथ्र्य किसी में नहीं।

- Dr. Kamlesh Pandey


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