कमसिन काया के मैदान पर क्‍लीन बोल्‍ड हुआ क्रिकेट

डीएलएफ आईपीएल-3 सम्पन्न हो चुका है। लेकिन इसके बाद भी कई सवाल चुके नहीं है। इसके बहाने सवालों की फेहरिस्त सामने आ खड़ी हुई है। खेल अब तीन घंटे की मनोरंजन फिल्म में तब्दील हो गया है। खिलाड़ी बेचे और खरीदे जा रहे हैं। खिलाड़ी खेल या आनंद के लिए नहीं, बल्कि पैसे के लिए खेल रहा है। प्रतियोगिता की अलग-अलग टीमों के डेयर डेविल्स, रॉयल चैलेन्जर्स, नाइट राईडर्स, डेक्कन चार्जर्स, सुपर किंग्स या किंग्स इलेवन जैसे नाम यह जाहिर करते हैं कि इस मुकाबले की इकलौती शर्त रोमान्च है, खेल नहीं। जैसे अभिनेता अपने शानदार अभिनय से नकली कहानी में जान डाल देते हैं, वैसे ही ये बिके हुए खिलाड़ी अपने खेल से नकली मुकाबले में जान डाल देते हैं।
70 के दशक में कैरी पैकर ने उजली गेंदो, रंग-बिरंगी पोशाकों और रात दिन के मुकाबलों के जरिए क्रिकेट की दुनिया में जो उद्यम किया था, अब वह एक तार्किक परिणति तक पहुंच गया है।
लेकिन मामला महज आईपीएल का नहीं है। प्रश्‍न है क्रिकेट में सेक्स और संसाधन के बढ़ते प्रयोग का। आखिर क्रिकेट दोयम दर्जे की रोमांचक फिल्म तो नहीं है, जिसमें कुछ बदन उघाड़ू दृश्‍य जरूरी हो जाते हैं। आज लोगों की रुचि मैच में लगने वाले चौकों-छक्कों से ज्यादा इसके तुरंत बाद न्यूनतम कपड़ों में खड़ी चीयर लीडर्स की भंगिमाओं पर जाता है। बहस जीत-हार से ज्यादा इस बात पर केन्द्रित होती है कि फैसले के बाद प्रीति जिन्टा ने गले किसको लगाया और शिल्पा शेट्टी किस किस से हाथ मिला रही हैं। आखिर क्रिकेट में सेक्स की इस घुसपैठ का क्या औचित्य है?
जानकार बताते है कि अमेरिका और यूरोप में भी खेलों की अलग-अलग टीमों के साथ बाकायदा उनके चीयर लीडर्स की टीम होती है। यहां भी वही प्रयास है, बिना किसी वैचारिक मुठभेड़ के यह सांस्कृतिक कचरा आयात किया जा रहा है। स्त्री सशक्तिकरण के नाम से भी तर्क रखे जा रहे हैं। सच यही है कि रूढ़ियां जितनी स्त्री-विरोधी है, यह आधुनिकता भी उतनी ही स्त्री-विरोधी है। स्त्री आजादी के नाम पर बाजार आधी अधूरी औरतों को परोसता और उनका दोहने करता है। ...और अब क्रिकेट भी उसका माध्यम बन रहा है। जैसे कुछ वक्त पहले धर्म-गुरूओं और धर्म जगत पर प्रश्‍न उठे थे और लोगों की श्रद्धा कुचली गई थी, उसी तरह आमजन के बीच पूजा जाने वाला क्रिकेट भी अब लोगों की श्रद्धा कुचल रहा है।
क्रिकेट में संसाधन के दुरूपयोग की कड़ियां भी एक-एक करके खुलती जा रही हैं। बात चाहे सुनन्दा, थरूर और ललित मोदी की हो या माल्या, शिल्पा, शाहरुख की, चांदी की चमक से आंखे चैधिंया ही जाती हैं। क्रिकेट से संस्कार खत्म हो रहें हैं। आखिर पूरे देश में शराब परोसने वाले माल्या के पैसे से क्रिकेट का या देश का कौन सा भला करने का प्रयास हो रहा है? सिगरेट कंपनी विल्स के हाथों विश्‍वकप (1996) के आयोजन का खेल क्या था ? आखिर तमाम दलाल अफसर -नेताओं के काले पैसों के कारोबार के लिए क्रिकेट को छोड़ देना किस दृष्टि से उचित है? सरकार बताये कि आखिर दलालों की समानान्तर सत्ता बन चुकी बीसीसीआई को अस्तित्व में बनाए रखने की जरूरत ही क्या है? जिसके अधिकारियों को देश और खेल से ज्यादा पैसे की फिक्र है। दलालों की सत्ता को समाप्त कर सरकार का खेल मंत्रालय क्रिकेट की कमान अपने हाथों में क्यूं नहीं लेना चाहता? आखिर खेल मंत्री से लेकर मंत्रालय के तमाम अधिकारी क्या कैबिनेट की शोभा बढ़ाने के लिए ही बहाल किए जाते है?
बीसीसीआई की भूमिका को लेकर आम जनमानस में भी रोष दिखाई देता है। क्रिकेट प्रसंशक अविनाश विश्‍वकर्मा ने कहा कि आखिर दलालों की इस जमात ने पैसा कमाने के अलावा क्रिकेट के लिए किया ही क्या है? तमाम प्रतिभाषाली खिलाड़ियों का भविष्‍य इन भ्रष्‍ट अधिकारियों के हाथों बर्बाद हो चुका है।
तमाम युवा संगठनों का कहना है कि बीसीसीआई को भंग करके खेल मंत्रालय को क्रिकेट की कमान अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। क्रिकेट के लिए नए नियम बनाए जाने चाहिए। बिके हुए खिलाड़ियों का राष्‍ट्रीय एकादश में चयन प्रतिबंधित होना चाहिए। बिके हुए खिलाड़ी की निष्‍ठा देश या खेल के प्रति नहीं अपने खरीदारों के प्रति होती है। जब देश के राष्‍ट्रीय स्तर के खिलाड़ी माल्या या अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हाथों बिक रहे होते हैं, तो देश की अस्मिता तार-तार होती है। जिन खिलाड़ियों को बिकने का शौक है, उनके लिए राष्‍ट्रीय एकादश के रास्ते बन्द होने चाहिए। क्रिकेट को प्राइवेट लि. कम्पनी का खेल बना देने का खेल कब तक चलेगा? क्रिकेट काली कमाई लगाने का माध्यम बनकर रह गया है। जैसे ही स्विस बैंकों ने अपने यहां जमा किए गए पैसों पर मुंह खोलना शुरू किया, यह काली कमाई वहां से निकल कर क्रिकेट में लगा दी गई। जबसे क्रिकेट में काली कमाई का यह पैसा लगा है, इस का चेहरा भी काला होता जा रहा है। इस खेल के साथ हो रहा यह खिलवाड़ बंद होना चाहिए।
- Amit Tiwari
News Editor

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शिक्षा का अधिकार: ढोल का पोल


मानव ससांधन मंत्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार के कानून और शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाले 86वें संविधान संशोधन कानून को एक अप्रैल 2010 से लागू कराने के काम को अपनी तथा कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया है। इस संबंध में पहली उल्लेखनीय बात तो यह है कि 86वें संविधान-संशोधन की पहलकदमी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने की थी और उस का उद्देश्‍य था कि 14 साल तक के हर बच्चे को शिक्षित करने की जो जिम्मेवारी संविधान ने सरकारों पर डाल रखी थी, उससे सरकारों को मुक्त किया जाए और यह जिम्मेवारी मां-बाप पर डाली जाए। ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि बाजार की व्यवस्था के अंतर्गत सरकारों को केवल बाजार-व्यवस्था की संचालक बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की खिदमत के लिए और सब कामों से मुक्त होना चाहिए। संविधान ने राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांतों के अध्याय के अंतर्गत बच्चों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की थी, जिसका मतलब था यह काम सरकारों को करना होगा। इस प्रावधान को वहां से हटा कर मौलिक अधिकारों के अध्याय में डालने का मतलब है अब हर बच्चे को शिक्षित करना मां-बाप की जिम्मेवारी है और ऐसा न करने पर अदालतें उन्हें दंडित कर सकती है जबकि सरकारें सब जिम्मेवारियों से मुक्त होंगी। क्या अदालत बच्चे के अशिक्षित रहने पर सरकार पर मुकदमा चला सकती है?
दूसरा कानून अर्थात् शिक्षा के अधिकार का कानून, और बड़ा तमाशा है। यह एनजीओ व्यवस्था की, जो बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की व्यवस्था का ही एक हाथ है, नई सूझ है कि हर प्रकार के जीने का अधिकार (शिक्षा का अधिकार भी जीने का अधिकार है) तभी किसी आदमी को मिलता है, जब राज्य कानून बनाकर उसे वह अधिकार देता है। इसके बिना तो किसी को जीने का अधिकार भी नहीं होता। दूसरे शब्दों में जीने के अधिकार सहित तमाम मानव अधिकार राज्य की तरफ से दी गई बख्‍शीश हैं। यह सिद्धांत बड़े तानाशाह और सर्वसत्तावादी बादशाह को शर्मिंदा कर सकता है। इतना बड़ा दावा तो इतिहास में उन्होंने भी नहीं किया होगा, समुंद्र को अपनी लहरें रोकने का आदेश देने वाले काल्पनिक राजा को छोड़ कर। हमारे मानव संसाधन मंत्री इस राजा की भूमिका निभाते लग रहे हैं।
उनका दावा है कि इन कानूनों के बन जाने के बाद अब हम हर बच्चे को शिक्षित करने का लक्ष्य पा लेंगे, जिसका एक चैथाई हिस्सा भी हम पिछले साठ सालों में नहीं प्राप्त कर सके। आज भी हाईस्कूल पार कर कालेजों में जाने वाले छात्रों की संख्या शिक्षा मंत्री के एक बयान के अनुसार 12 प्रतिशत के करीब है। वैसे गैर सरकारी अनुमान तो और भी कम बताते हैं। 70-75 प्रतिशत बच्चे तो हाई स्कूल समाप्त होने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। जो बच्चे स्कूल का दरवाजा ही नहीं देख पाते उनकी तो किसी ने अभी तक गिनती ही नहीं की। फिर भी शिक्षा मंत्री एक अखबार में छपे अपने लेख में कहते हैं कि कुल दाखिले 100 प्रतिशत से ऊपर हैं (दि हिंदू, 1 अप्रैल)। सौ प्रतिशत से ऊपर तो फर्जी आंकड़े ही हो सकते हैं। क्या इसी तरह के आंकड़ो से जनता को बेवकूफ बनाया जाएगा?
कहा गया है कि शिक्षा का अधिकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा से आगे जाता है। उसमें क्वालिटी एज्यूकेशन या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा शामिल है। अगर गुणवता नहीं तो यह बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना होगा। यह क्वालिटी कहां से आएगी? यह हर बच्चे को पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ा कर आएगी। ज्ञान आयोग की यही सिफारिश है। इस देश में क्वालिटी और योग्यता की खान अंग्रेजी ही रही है। हमारे देश में यह देव भाषा है। जो इसे सीख लेता है, वह सर्वगुणसम्पन्न बन जाता है। मनोवैज्ञानिकों और भाषा-शास्त्रियों का कहना है कि भाषा बच्चे का अस्तित्व है, उसके माध्यम से वह अपने होने की घोषणा करता है। हम उससे उसकी भाषा छीन कर उस पर एक अजनबी विदेशी भाषा लादेंगे जिसे वह ठीक प्रकार से कभी नहीं सीख पाएगा और इस प्रकार उसमें क्वालिटी शिक्षा भरेंगे, गोया बच्चे का दिमाग खाली घड़ा है जिसमें कुछ भी ठूंसा जा सकता है। इस पर भी कहा गया है कि शिक्षा बच्चों की पसंद के वातावरण में (चाइल्ड फ्रेडंली) दी जाएगी, जिसमें बच्चा भय, तनाव और घबराहट के बिना षिक्षा ग्रहण कर सकेगा। यह कहते हुए इस बात को बिल्कुल नजर अंदाज किया गया कि 70-80 प्रतिशत बच्चों द्वारा बीच में स्कूल छोड़ने और आधे से ज्यादा बच्चों के फेल होने का सब से बड़ा कारण अंग्रेजी भाषा का खौफ होता है। फिर शत प्रतिशत बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य कैसे पूरा होगा?
यह दावा भी किया गया है कि शिक्षा के अधिकार के कानून को लागू कर शिक्षा में सर्वतोन्मुखी क्रांति लाई जाएगी, जो अब तक अपनाई गई षिक्षा-दृश्टियों को अपने में समेटते हुए सार्वजनिक षिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करेगी। अब तक अलग-अलग हित समूहों ने अलग-अलग दृष्टि अपनाई। प्रशासकों की प्राथमिकता रही कि स्कूल ज्यादा से ज्यादा खुलें, उनमें अधिक से अधिक बच्चे दाखिल हों, स्कूल घर के निकट हों और वहां साज-सामान तथा शिक्षकों की अच्छी व्यवस्था हो। शिक्षा-शास्त्रियों की चिंता रही कि बच्चे बिना बोझ, भय और तनाव के शिक्षा ग्रहण कर सकें, पाठ्यक्रम इतना बोझिल न हो कि ट्यूशन केंद्रों की दुकानें फलें-फूलें। विकास के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों और विभागों की चिंता रही कि स्कूल-शिक्षा कितनी लंबी या छोटी हो और शिक्षा की अंतर्वस्तु क्या हो। अर्थशास्त्रियों को शिक्षा से मिलने वाले प्रतिफल या लाभ की चिंता रही। माता-पिता की मांग रही बच्चों को अच्छी नौकरी तथा आर्थिक कमाई के लिए तैयार करना। इस क्रांतिकारी कानून से सबकी उम्मीदें पूरी होंगी तथा उसके अलावा भी कुछ होगा। इस कुछ और का जिक्र तो नहीं हुआ है किंतु यह साफ है कि यह शिक्षा-क्रांति विश्‍व बाजार के लिए शिक्षित गिरमिटिया सप्लाई करने का काम भी करेगी, जो इस समय भारत के लिए कमाई का सब से बड़ा स्रोत है। शिक्षा में क्वालिटी का मतलब ही है बाजार व्यवस्था के कलपुर्जे बनाने की योग्यता।
ये कानून पास कराकर शिक्षामंत्री ने एक तीर से दो नहीं तीन निशाने साधे हैं। एक तो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती को, जो कांग्रेस की पुरानी संस्कृति का एक मात्र अवशेष था, सबक सिखाया और उसके तमाम किए को अनकिया कर अपनी संस्कृति की छाप छोड़ी। दूसरे, शिक्षा के अधिकार के कानून को श्रीमती सोनिया गांधी से जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली, हालांकि यह अधिकार एनजीओ संस्कृति का एक चालू नुस्खा ही है। कांग्रेस पार्टी को या यूपीए सरकार को इसका क्या लाभ होगा, यह तो भविष्‍य ही बताएगा। किंतु जहां तक शिक्षा की बात है, उनके दोनों कानून शिक्षा को आम जनता की पहुंच से दूर करने तथा भारत के पुश्‍तैनी गुलाम खास वर्गो की सेवा में समर्पित करने के अभीष्‍ट लक्ष्य की पूर्ति अवश्‍य करेंगे। शिक्षा के प्राथमिक ढांचे में तो कोई सुधार नहीं होगा किंतु उच्च शिक्षा के नाम पर कारोबार खूब फले-फूलेगा। चूंकि नये कानून ने बच्चे की स्कूल-पूर्व की शिक्षा की जिम्मेवारी से भी सरकारों को मुक्त कर दिया है, अतः शिक्षा के लुटेरों के हाथ छोटे बच्चों का भविष्‍य भी दिया जा रहा है। यह बात भी सर्वविदित है कि शिक्षा के अधिकार के कानून (आर.टी.आई) के पीछे बहुराष्‍ट्रीय शिक्षा-माफियाओं की लॉबी सक्रिय है, जो धुआंधार प्रचार कर रही है कि यह काम निजी उद्यमों के द्वारा ही हो सकता है और सरकारों को इससे हाथ खींच लेने चाहिए। राज्य को शिक्षा के क्षेत्र से पूरी तरह बेदखल करने की योजना है यह कानून, जिसका श्रेय शिक्षामंत्री खुद भी ले रहे हैं, यूपीए सरकार तथा उसकी अध्यक्ष को भी दे रहें हैं और शिक्षा माफियाओं की मदद भी कर रहें हैं। इस काम को अंजाम देने के लिए शिक्षामंत्री ने विदेशी शिक्षा संस्थान प्रवेश और क्रियान्वयन नियमन विधेयक को भी कैबिनेट से पास करा दिया है, जिसे विद्वान लोग उच्चशिक्षा के क्षेत्र का ‘सेज’ (स्पेशियल इक्नामिक ज़ोन) कह रहें हैं।


- Mastram Kapoor