देश में कमल कैसे खिले? कितना कीचड़ चाहिए इसको खिलने के लिए? दल के दलदल में फंसी राष्ट्रीय अस्मिता की प्राणवन्ता का खिला कमल विकल्प बन सकेगा? सत्ता-साधना में यह अष्टदल-कमल कारगर हो पायेगा? भागवत ने जो पाञ्चजन्य फूंका है, वह शंखनाद, क्या असंख्य स्वयंसेवकों को प्रेरित कर पायेगा? नितिन गडकरी को जो गांडीव सौंपा गया है, क्या वह सत्ता-प्राप्ति का रामबाण चला सकेगा? अन्दर-बाहर जो संघ-विरोधी हैं, जिन्हें संघ ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहता है, उन राष्ट्र-विघातक शक्तियों का सफाया हो पायेगा?
संघ की मनचाही मुरादें पूरी हो पाएंगी? विमर्श जारी है. अखबार-नवीसों द्वारा नित्य नूतन विचार नितिन पर प्रकट किये जा रहे हैं.संघ का यह नागपुरी संतरा किस भाव में बिकेगा? आइये जानते हैं सत्ता-बाजार का हाल-चाल....
झारखण्ड का चुनाव परिणाम आ चुका है. नितिन गडकरी का राज्यारोहण क्या हुआ कि सी एम इन पाईपलाइन बाहर ही नहीं आ सका. खैर यह परिणाम तो राजनाथ के खाते में जायेगा !पिछले कई सालों से भाजपा सत्ता से बाहर रही है. पूरी सुखौती लग गई है. आडवाणी से लेकर जसवंत तक सभी भाजपा के लिए कालिदास बन गए हैं. वाजपेयी मृत्युसैय्या पर हैं. भीष्म की तरह वे विवश हैं. एक-एक कर सत्ता हाथ से निकलती गई. मुद्दे भी बेकार हो गए हैं. राममंदिर से रामसेतु, सारी बातें भोंथरी हो गई हैं. पानी पी-पीकर कितना कोसेंगे मियां को? बाबर का नाम मिट नहीं पा रहा है. वन्दे-मातरम् कहना होगा, नहीं तो भारत से जाना होगा. अब तो संघ-पुत्र भी वन्दे-मातरम् नहीं बोलते. स्वदेशी की बात कर पार्टी सरकार में आई, स्वदेशी का क्या हाल हुआ, हम सब जानते हैं.
इन तमाम भोथरे मुद्दों और उन तमाम बुझे हुए कारतूसों के बीच गडकरी के छोटे कंधे पर पार्टी की बड़ी बंदूकें रख दी गयी हैं.
नितिन गडकरीके सामने तीन भागवत सूत्र हैं- विकास के नए प्रयोग, आम आदमी की बात और संघ-अनुशासन का डंडा. विकास की भारतीय अवधारणा पर संघ अधिक ही मुखर रहा है. जीव-जगत और जगदीश की सम्पूर्ण संकल्पनाओं की इनकी अभिव्यक्तियाँ आकर्षक रूप में सामने आती हैं. पर पिछले नेतृत्व का जो अनुभव आया वह पश्चिमी अवधारणाओं से प्रभावित रहा. जिस प्रकार, विनिवेशीकरण का दौर चला, बाजारवाद को गति मिली. जिस प्रकार से विदेशी बाजार के लिए भारत का दरवाजा खोला, वह नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के उदारीकरण से बढ़कर है. खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश, कांट्रैक्ट फार्मिंग, उपभोक्ता वस्तुओं में विदेशी हस्तक्षेप, सब कुछ हुआ. तेरह ही दिन में एनरोन समझौता!! परंपरागत संसाधनों के आधार पर विकास का ढांचागत संरचना खड़ा करना कैसे संभव होगा? पार्टी की दिशा जब बाजारोन्मुख हो तो विकास का नया स्वरुप कैसे सामने आ पायेगा? पार्टी जल, जंगल, जमीन और जानवर की पूजा तो कर सकती है, पर इनके संवर्धन और संरक्षण के लिए कोई उपाय नहीं है इनके पास. पार्टी बनियों और ब्राह्मणों की बनकर रहेगी तो फिर विकास की बातें कैसे होंगी?
बाजारवाद और ब्राह्मणवाद दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं. ये दोनों ही विषमता के पाँव पर ही खड़ा हो सकते हैं. शोषण ही इनका आधार है. फिर भाजपा किसका विकास चाहेगी? मुट्ठीभर लोगों का या विकास के बनते टापू से खदेड़े गए लोगों का? सवाल जिन्दा है.
गडकरी का आम आदमी कौन है? आम आदमी का मतलब हिन्दू होने से है या फिर मुसलमान भी इसमें शामिल हैं? इनका हिंदुत्व तो ब्राह्मणवाद से है. समता तो पार्टी के डिबेट में ही नहीं है. समरसता में बहुत ही रस लेती है पार्टी. दरिद्र को नारायण बनाना जब पार्टी का प्रस्थान बिन्दु बना हो, वहां आम आदमी तो केवल पावदान भर है, जिसपर पांव पोंछकर पार्टी सत्ता तक पहुंचेगी. जब पार्टी में लोकतंत्र नहीं हो, तो वह देश के लोकतंत्र को कैसे मजबूत करेगी? जिस पार्टी में कार्यकर्ताओं की राय का महत्व नहीं हो. जहाँ पार्टी भागवत-राय से ही चल रही हो, तो आम लोगों की जरूरत ही क्या रह जाती है? बीजेपी यानी ‘‘ब्राह्मण जाति पार्टी....’’ जनता है ही कहाँ? इस हालात में पार्टी मनहूस ही नहीं जनहूस भी रहेगी.
गडकरी यानी क्या? कृतित्व और व्यक्तित्व क्या रहा है इनका? यही ना कि गडकरी गणेश-परिक्रमा में माहिर निकल गए. गणेश-परिक्रमा का इतना बड़ा फायदा होता हो, इसे देखकर कौन कार्यकर्ता जमीन पर बुनियादी सवालों को लेकर संघर्ष करेगा? अगर गडकरी ने गाँधी की तरह कोई दर्शन दिया होता, कोई दृश्यमान काम किया होता, तो बात समझ में आती. गडकरी ने सीमेंट का रोड बनवाया, फ्लाइओवर बनवाया. यह सब तो नकली विकास है. विकास का भ्रम है. विकास का मतलब ‘कंस्ट्रक्शन वर्क’ नहीं होता. जिस सीमेंट और ईंट से सड़क बनवाया, उससे आम आदमी का क्या भला हुआ? सीमेंट का पैसा बनियों के पास, ईंट का पैसा बाजार में. गाँव या आम लोगों की जेब में तो कुछ नहीं आया. शायद भागवत-सूत्र में गाँधी के ताबीज की चर्चा हुई भी नहीं होगी. इस ताबीज में गाँधी ने कहा था कि विकास की नीति बनाते वक्त यह ध्यान रखा जाय कि उस नीति से विकास की पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को फायदा हुआ या नहीं? गडकरी के कथित विकास को हम समझ सकते हैं.
गडकरी का महिमा मंडन चल रहा है. झूठ को सच साबित कर देने की काबिलियत संघ के अलावे और किसके पास है दुनिया में. मधु लिमेय ने ‘आर एस एस’ को ‘र्युमर स्प्रीडिंग सोसायटी’ कहा था. संघ की बारात में जो घोड़ा पर बैठ जायेगा, वही सिन्दूर दान करने लायक हो जाता है. संघ की मुख्यधारा से जो अलग धारा फूट कर निकलती है, वह नाला बन जाती है. मधोक, गोविन्द, उमा, कल्याण, बाघेला, जसवंत.. ना जाने कितने संघ के शिकार हैं?
जहाँ तक संघ के डंडे का सवाल है, स्वयंसेवक तो प्रतिबद्ध है कि वह संघ का डंडा खाए और संघ को एकाधिकार भी है कि वह डंडा दिखाए. पर यह देश तो केवल स्वयंसेवकों से नहीं बना है. ये स्वयंसेवक ‘देश’ बोलते तो हैं, मगर देश को जीते कहाँ हैं. देश को जीते हैं गाँव, गलियां और खलिहान, जो अभी तत्काल संघ के एजेंडे से बाहर हैं.
‘कानी बिल्ली घर ही शिकार...’ डंडा दिखाएं, देखें, देश का क्या होगा ? भाजपा को अगर भारत में ही राजनीति करनी है तो भारतीय समाज की तासीर को समझना ही होगा.गडकरी पार्टी को सुधार देंगे, लीक पर लायेंगे... गडकरी अति कुशल हैं, योग्य हैं, लोक संग्रही, देव दुर्लभ हैं तो इनके पहले वाले तमाम लोग क्या थे? क्या वे पार्टी के दुश्मन थे या देश के ? क्या बाकी लोग बेकार थे ? नाकारा और निठल्ले थे ? संघ जो शेखी बघार रहा है आज, आखिर किनके बल पर ? वही कथित नाकारा लोग ही तो थे जो अपने कन्धों पर पार्टी को ढोकर सत्ता तक लाये. जो पार्टी अपनी विरासत का सम्मान नहीं कर सकती वह देश की बलिदानी विरासत का क्या सम्मान करेगी? यह नितिन गडकरी भी कुछ दिन बाद कीचड़ बनेंगे.. कमल खिलता ही रहेगा आगे भी और इसी तरह.?
- Vijayendra
Editor
Nirman Samvad
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