‘शरीयत’ कानून कम, औरतों के हक छीनने का औजार ज़्यादा


शरीयत, जिसका पूरा इस्लाम जगत बड़ी शिद्दत से नाम लेता है। शरीयत कानून का जिक्र नौंवी सदी की शुरूआत में पहली बार ‘‘अल रिसाला’’ नामक पुस्तक में हुआ था। इसके चार स्रोत थे - कुरान 2. सुन्न 3. इस्मा 4. कयास शरीयत कानून न तो ईष्वर की वाणी है और न ही मुहम्मद साहब की। यह सिर्फ एक कयास है। पर यह कयास धीर-धीरे कट्टर कानून में तब्दील होता चला गया और मुस्लिम समाज में अपनी जड़ें जमा ली। कई ऐसे मुस्लिम देश हैं जहां शरीया कानून ही लागू है । कई मुस्लिम देशों में इसे कानूनी मान्यता भी मिली हुई है। भले ही कुछ कट्टरपंथी लोगो ने इसे कुरान की बात कह कर लागू किया हो, पर यह लोगों के हितों की रक्षा के लिए कम और उन्हें उनके हक से महरूम करने के लिए ज्यादा जाना जाता है। खासकर औरतों के मामले में।
यह शरीया कानून आज के संदर्भ में मुस्लिम महिलाओं के लिए कानून नहीं बल्कि उनसे उनके हक छीन लेने का एक बहाना ज्यादा बन गया है। कई ऐसे देश है जहां शरीया कानून की आड़ में महिलाओं पर पांबदिया लगाई जाती हैं। और उन्हें शिक्षा और बाहरी दुनिया से महरूम रखने की कोशिश की जाती है।
इस शरीया कानून का असर भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश पर भी कहीं- कहीं देखने को मिल जाता है। यद्यपि संविधान में सभी नागरिकों को समान माना गया है, तथापि समान नागरिक संहिता ना लागू किये जा सकने की आड़ में कई मुस्लिम बहुल इलाकों में पंचायतें शरीआ कानून के नाम पर फैसले सुनाती हैं। हमेशा महिलाओं को ही इन फैसलों की भेंट चढ़ना पड़ता है। मुस्लिम बहुल इलाकों में आज भी महिलाओं को पर्दे में रहना पड़ता है। 2009 में गुड़िया का मामला हो या 2005 में इमराना का मामला। इन दोनों को पंचायतों का फैसला मानने को मजबूर किया गया । इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मदरसों में से 8वीं के बाद 25000 लड़कियों को यह कह कर निकाल दिया गया कि इससे बेपर्दादारी बढ़ेगी । इस तरह यह कानून लड़कियों की शिक्षा छीनने का काम कर रहा है । यह फतवा दिया गया था ‘दारूल उलूम देवबंद’ की तरफ से। ‘दारूल उलूम’ का मतलब होता है ‘ज्ञान का घर’। काहिरा के ‘जाम-ए-अजर’ के बाद इसे ही इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है। दुनिया भर के मुस्लिम देशों के छात्र यहां इस्लाम की पढ़ाई करने आते हैं। दारुल उलूम एक शिक्षा का केन्द्र होने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा के हक में नहीं है। धर्म के नाम पर इन मुल्लाओं ने मुस्लिम स्त्रियों को घर की चारदीवारी में ही कैद कर दिया है।
हालांकि अब महिलाएँ इस कानून का विरोध कर रही हैं और शरीया कानून में बदलाव की मांग भी उठी है। लेकिन हमेशा ऐसी मांगों को गैर इस्लामी बात कह कर टाल दिया जाता है। कई ऐसे देश हैं जहां महिलाओं पर जबर्दस्ती शरीया कानून थोप दिया जाता है, और वो मानने को विवश होती हैं। इसका एक प्रमुख कारण मुस्लिम समाज में शिक्षा का अभाव। यह एक हकीकत है कि देश का मुस्लिम समुदाय बाकी वर्गो की तुलना में आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कुछ पिछड़ा हुआ है। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए इसके लिए शिक्षा पहली जरूरत है। ताकि वे शरीया कानून का अर्थ समझ सकें और अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरुक हो सकें। कई ऐसे लोग हैं जो धार्मिक नेतृत्व के फैलाए हुए भ्रम का शिकार हैं।
उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनावों में 22 प्रतिशत महिला प्रत्याशी है। इनमें से एक बड़ा तबका मुस्लिम महिलाओं का है। हालांकि ‘दारुल उलूम ’ का कथन है कि शरीयत यह इजाजत नहीं देता कि महिलाएं चुनाव लड़ें। यह केवल मर्दों का काम है। हालांकि कुरान में औरत और मर्द के लिये बराबर हक की बात की गई है।
कोई भी, चाहे वह ‘मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड’ हो, ‘दारुल उलूम’ या ‘मदरसा बोर्ड’ इस्लाम को सही तरीके से दुनिया के सामने पेश नहीं कर पाये हैं।

शहनाज अंसारी

Nirman Samvad

1 comments:

helloguys said...

duniya admi aur orat dono k sahyog se bani hai ye duniya sirf admi k moz lene k le nae banai gae isme dono ko baraba jeene ka haq hai

Post a Comment