रोती हैं शहादतें सरकार के सरोकार से



दिल्ली धुंध से बाहर निकली है। तपिश तेज हो गई है। मीडिया भी न्यूज-मंदी के दौर से बाहर निकल आया है। वैसे, मार्च तो मीडिया के लिए लाभकारी महीना होता है। सदन का सत्र प्रारंभ होता है। बजटें आती हैं। रेल बजट और आम बजट से जुड़ी खबरें बहुतायत में होती है।
पर, 2010 के मार्च का अलग ही मायने था। स्वराज के जन्म का, लोहिया के जन्म का वर्ष और न जाने कितने महानायकों का जन्मशती वर्ष भी था। मार्च का यह महीना सम्पूर्ण क्रांति दिवस और भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव का शहादत-दिवस भी लाता है।
हिन्द-स्वराज के गांधी, समता के पैरोकार लोहिया और सम्पूर्ण-क्रांति के प्रणेता जे.पी. निराश हैं, देश के निज़ाम और उसके इन्तजाम से। देश कैसे गांधी, जे.पी., लोहिया को याद करे? थाली में जो रोटियां दी थीं, दांडी से जो नमक मिला था, वह सब छिन गया है। 'गरीब भगाओ, देश बचाओ' के नारे को अमली जामा पहनाने वाली सरकार ने जो व्यवस्था दी है, उसे देखकर शहीदों की इन शहादतों पर रोना आता है। अफसोस होता है कि भगत, सुखदेव
और राजगुरू ने आखिर किनके लिए अपनी शहादत दी थी? क्या इन्हीं दलालों और मक्कारों के लिए, जो निजहित में देश की बोली लगा रहे हैं। देश को उम्मीद थी कि देश के कथित रहनुमा महंगाई के खिलाफ नई जंग का ऐलान करेंगे। आम आदमी के जिंदा रहने की संभावना दिखेगी।
हुआ क्या? रेल बजट पास हुआ? उसके बाद भी आम आदमी भेड़-बकरी ही है, उचित टिकट के बाद भी जानवर जैसी यात्रा! गांधी का ‘थर्ड-क्लास‘ जिन्दा है। उधर अमीरों के लिए ए.सी.। एयर कंडीशन के शीशे अब तक क्यों नहीं टूट पाये हैं। ममता की सादगी लोभ की धवलता है। वह लोभ है राइटर्स बिल्डिंग पर कब्जा। यह तृणमूल (ग्रास रूट) बजट तो कतई नहीं था।
दीदी के गरीब विरोधी बजट के बाद का आम बजट आया। दीदी और दादा का बेहतर गठजोड़! उपेक्षा ही उपेक्षा! गरीबी का सवाल अब तो निहायत ही बेतुका सवाल बन गया है।
पूंजीपतियों के पैरोकार प्रणब ने देश को निराश किया, महंगाई का सनातन सत्य बताकर । गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं, तो फिर मंहगाई क्यों? अनाज जब महंगा हुआ तो किसानों को लाभ क्यों नहीं मिला? बिचैलियों पर बहस क्यों नहीं हुई। निर्लज्ज सरकार ने बिना विपक्ष रेल बजट गरीब-विरोधी बजट क्यों पास किया?
महंगाई को लेकर विपक्ष जैसे ही एकजुट हुआ कि सरकार महिला आरक्षण बिल ले आई। इस महंगाई में महिला क्या करेगी? घर ही जब नीलाम हो रहा हो, तो गृहणी क्या करेगी? घरवाले कतई नहीं चाहेंगे कि घर के साथ गृहणी भी नीलाम हो जाये।
सदन पूंजी का गुलाम हो चुका है। बिके हुए और बर्बाद सदन में महिलाओं की तैंतीस या तिरसठ प्रतिशत भागीदारी देकर क्या तीर मार रहे हैं? आने वाली पीढ़ी के लिए हमने कुछ नहीं छोड़ा। जितनी जगह महिला के लिए छोड़ी जा रही है, उस जगह का क्या करना? महिला के लिए यही जूठन! घर से लेकर सदन तक यही होगा, तैंतीस ही क्यों? इतने दिनों तक वह बाहर रहीं, कुछ दिनों तक सदन उन्हें ही संभालने दिया जाये।
स्त्री जन्मना शुद्र है, शायद यह किसी भगवान की पसली से निकली है- एक टूटी हुई हड्डी की तरह। बाजार ने इन्हें भी मोहरा बना लिया है। स्त्रीनुमा आचरण के बजाय स्त्री-स्वतंत्रता की मर्दवादी व्यवस्था के तहत सब कुछ किया जा रहा है। तैंतीस प्रतिशत ही क्यों? आधी आबादी को आधी हिस्सेदारी दो! शुद्रों से रोटी छीन ली, श्रमिकों से रोजगार ले लिया और शिल्पकारों से शिल्प। इस घोर (अराजकता की स्थिति में सरकार को औरत की याद कैसे आई?
शायद औरत की याद सरकार को मीडिया एवं महात्माओं के कारण से आई हो। पता लगाना जरूरी है। न्यूज-मंदी की मार झेलते मीडिया को भीमानंद, नित्यानंद एवं कृपालु की कृपा ने बाहर निकाला। तमाम चैनल सैक्सी बाबाओं की खबरें जुटानें में लग गये। खूब न्यूज पेल रहे हैं हमारे टी. वी. चैनल। काल गर्ल, काल गर्ल की लिस्ट, बाबा का लवलेटर, नित्यानंद का हिरोइन के साथ समागम। भीमानंद का डांस, रंगरेलियां............। काल गर्ल की लिस्ट में पिंकी, रिंकी, चिंकी के नाम..........। हालात ऐसे बन गए हैं कि- समाज की अन्य पिंकी, रिंकी भी अपना नाम छुपाने लगीं। कहीं मीडिया की खबरों को लोग उसी से न जोड़कर देखने लग जाएं।
मार्च खत्म हुआ, अब अप्रैल भी खत्‍म होने को है। सम्पूर्ण क्रांति और भगत सिंह की शहादत से मेरी लेखनी बाबाओं की ओर मुड़ चुकी है। गीत के बोल याद नहीं हैं। आइये, बाबा या उससे जुड़े तमाम सहायक घरानों के बोल सुनें-
‘‘जिस्म फरोशी की तमन्ना अब तो इसके दिल में है, देखना है जोश कितना,
इस जवां कातिल में है।’’
जिस्म सत्य है, इससे जीवन मिलता है, इससे जंग होती है, सरकारें जन्म लेती हैं, जवान होती हैं। जिस्मानी जरूरत बाबा को भी है, बाजार और सरकार को भी। सरकार स्त्रीलिंग है; बेहतर होगा कि सदन में 33 प्रतिशत मर्दों को आरक्षण मिले।

- Vijayendra
Editor

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