बढ़ती महंगाई ने गरीब तबके, निम्न मध्यवर्ग और निश्चित आय वर्ग के लोगों के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। विडम्बना यह है कि इस संकट का आर्थिक समाधान तलाश करने की जगह इसको भी राजनीति के गलियारे में घसीटा जा रहा है। इससे कतिपय राजनीतिक लाभ तो अर्जित किया जा सकता है लेकिन देश के आम आदमी को राहत तो कत्तई नहीं दी जा सकती। सरकार अगर यह कहती है कि महंगाई वैश्विक कारणों से बढ़ रही है तो वह गलत नहीं कह रही है। गलत सिर्फ इतना है कि वैश्वीकरण के नशे में सिर्फ इसी सरकार ने नहीं, अपितु इसके पहले की कई सरकारों ने हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेंच दिया। वैश्वीकरण का विरोध नहीं किया जा सकता लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के मूल्य पर नहीं होना चाहिए। फिलहाल बढ़ती महंगाई ने आम आदमी को अपने क्रूर पंजों में दबोच लिया है। उसे मुक्त कराने के लिए राजनीति की जरूरत नहीं है, एक विशुद्ध देसी अर्थशास्त्र की जरूरत है।उज्जैन में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाषण देते समय यह आरोप लगाया कि महंगाई केन्द्र सरकार की वजह से नहीं बल्कि राज्य सरकार की नीतियों की वजह से बढ़ी है। ऐसे मे आरोप-प्रत्यारोप को दरकिनार कर एक कारगर नीति-निर्धारण के लिए आगे कौन आयेगा। इन्हीं सोनिया के एक पुराने पिट्ठू और मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्याज के महंगे होने को भाजपा की केन्द्र सरकार की करतूत बताकर यहाँ का विधानसभा चुनाव जीत लिया था और इस प्रदेश की जनता की पाँच सालों तक जमकर ऐसी की तैसी की थी। अब सोनिया हमें बता रही हैं कि बेचारगी में रहने वाली प्रदेश सरकार हमारा शोषण कर रही है और वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पाक-साफ हैं, जबकि आंकड़े कुछ और ही बयान कर रहे हैं। भारत में 400 प्रकार के कर (टैक्स) हैं, जो यहाँ का बेचारा आम आदमी चुकाता रहता है। इतने विविध प्रकार के कर तो पूरे संसार में कहीं नहीं हैं। यह कर मुख्य रूप से दो प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में लगे। एक नरसिंहा राव और दूसरे मनमोहन सिंह के। दोनों में ही मनमोहन सिंह उभयनिष्ठ हैं, क्योंकि वो राव सरकार में वित्तमंत्री थे। भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की चौथे नंबर की बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन -पर कैपिटा इनकम- यानी प्रति व्यक्ति आय के मामले में यह विश्व का 133 वें नंबर का देश है। वित्तमंत्री अपने मुखिया मनमोहन के साथ मिलकर भारत को दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनाने पर तुले हुए हैं। लेकिन भइया जब घरों में रोटी ही नहीं बचेगी तो क्या करोगे महाशक्ति बनकर। दूसरा आप लोग महंगाई बढ़ने के प्रतिशत का जो हो-हल्ला आजकल सुन रहे हैं, उसमें भी सच्चाई नहीं है।
महंगाई बढ़ने का जो प्रतिशत भारत में मापा जाता है वह होलसेल रेट का होता है। यानी कीमतें 19 फीसदी तो होल-सेलर को महंगी पड़ेंगी, हम आम उपभोक्ता को तो यह 30-40 फीसदी तक महंगी पड़ेंगी। यह पद्धति भारत में ही अपनाई जाती है, यूरोप में होल-सेल की बजाय रिटेल रेट (जिनपर हम आम उपभोक्ता निर्भर करते हैं) के आधार पर ही महंगाई मापी जाती है। भारत में ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इतनी महंगाई बता दी जाए तो यहाँ हाहाकार मच जाए, जबकि होल-सेल वाली बात आम आदमी को समझ ही नहीं आएगी और आंकड़ों के जाल में वह उलझा रहेगा।
इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता हैं कि अगर दो साल पहले किसी व्यक्ति का वेतन 10000 रुपए था और वह अपने घर की गुजर-बसर इतने में कर लेता था, तो पिछले साल में जितनी महंगाई बढ़ी है उस हिसाब से अब उसे अपने उसी प्रकार के रहन-सहन को मैंटेन करने में 14000 रुपयों की जरूरत पड़ेगी। तो दोस्तों महंगाई तो 40 फीसदी बढ़ गई और क्या आप या हममें में से किसी दोस्त का वेतन 40 फीसदी बढ़ा ? तो इसका मतलब आप-हम लोग जीवन में आगे बढ़ने के बजाए पीछे जा रहे हैं और अपने पुराने रहन-सहन को मैंटेन करने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं।
एक आम भारतीय के लिये भोजन की थाली अब 40 प्रतिशत महंगी हो गई है।पिछले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष महंगाई का औसत दो गुने से ज्यादा हो गया है। पिछले वर्ष चीनी का मूल्य 18 रु. किलो था, जो इस वर्ष 48 रु. हो गया है। इसी प्रकार गत वर्ष दाल का मूल्य 40 रु किलो था जो वर्तमान में 100 रु. है ! आलू भी पिछले वर्ष 30 रु में पांच किलो मिल जाता था जो कि अब 70 रु. में मिलता है,टमाटर का मूल्य पिछले वर्ष 7 रु. किलो था जो कि वर्तमान में 5 रु में 250 ग्राम ही मिलता है ! मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि लगभग हर वस्तु के मूल्य में दो गुने से ज्यादा की वृद्धि हुई है ! इस बढ़ती महंगाई से तो सरकारी पदाधिकारियों को ज्यादा समस्या नहीं हो रही होगी क्योंकि सरकार द्वारा लागू किए गए छठे वेतन आयोग से सरकारी पदाधिकारियों के मासिक वेतन में वृद्धि हुई है जिससे कि वे इस महंगाई से निपटने में सक्षम हैं।
लेकिन मजदूर वर्ग और छोटे व्यापारियों का तो जीना दूभर हो गया है। वो इस महंगाई से लड़ने में असमर्थ हैं। एक मजदूर जिसकी मासिक आय महज 3000 रु. है और उसके घर के सदस्यों की संख्या 8 है, तो ऐसे में वह अपने परिवार के लिए पौष्टिक भोजन की भी व्यवस्था नहीं कर सकता तो वह अपने बच्चों को शिक्षा कैसे दिला पाएगा? मान लीजिए उसके घर में प्रतिदिन के भोजन की मात्रा डेढ़ किलो आटा , 50 ग्राम चीनी, 150 ग्राम दाल और एक किलो ग्राम दूध है , जिनकी मासिक लागत क्रमशः आटा =675 रु , दाल = 450 रु, चीनी = 80 रु , और दूध = 900 रु है ! इनका मासिक योग = 2105 रु होता है, जिसमें अभी ईंधन और तेल, मसाला आदि मूल्य नहीं जोड़ा गया है।स्थिति की भयावहता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
हम और हमारी आर्थिक नीतियां अब अमेरिका और वर्ल्ड बैंक की गिरफ्त में हैं। ऐसे में किसी इकोनॉमिक रिजोल्यूशन की अपेक्षा की जाए,जो हमारे घर के चूल्हे को ही बुझा दें, हमारे बच्चों को अच्छे स्कूलों से महरूम कर दें और हमें अपने लिए एक अदद मकान तक नहीं बनाने दें। सरकार ने जब पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इजाफा किया था, तो यह सहज रूप से माना जा रहा था कि मुद्रास्फीति घटने की जगह और बढ़ेगी। लेकिन वह इस तेजी से बढ़ेगी और सारे कयासों को हैरत में डालती एकाएक दहाई का आँकड़ा पार कर जायेगी, यह किसी के अनुमान में नहीं था। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति 19 प्रतिशत पर पहुँच गई। यह स्पष्ट करता है कि मौजूदा समय में महंगाई पिछले 13 वर्षों के रिकार्ड स्तर पर है। सर्वाधिक बढ़ोत्तरी ईंधन और ऊर्जा समूह में दर्ज की गई है जिसका सूचकांक पहले के मुकाबले 7.8 प्रतिशत उछला है। महंगाई दर के इस इजाफे के बारे में उद्योग चैम्बरों का कहना है कि मुद्रास्फीति संभवत सरकार के हाथ से बाहर जा चुकी है। उनका यह भी मानना है कि इसकी वजह से आर्थिक विकास दर में भी गिरावट आएगी।
मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी का यह क्रम हालाँकि मार्च महीने में सरकार के बजट पेश करने के बाद से ही लगातार जारी है, लेकिन एकाएक इतनी छलांग की उम्मीद सरकार के अर्थशास्त्रियों को कत्तई नहीं थी। अगर बढ़ोत्तरी का यह क्रम यथावत बना रहा तो वैश्विक स्तर पर छलांग लगाती देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचेगी तथा विकास की सारी संकल्पनायें बीच रास्ते दम तोड़ देंगी। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सारे व्यवस्थापक शुरू से एक ही राग अलाप रहे हैं कि सरकार बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करने का हर स्तर पर प्रयास कर रही है। इसके अलावा रिजर्व बैंक द्वारा किए गए मौद्रिक उपाय भी कारगर परिणाम देते दिखाई नहीं देते।
अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि महंगाई के शिखर छूते कदमों ने देश को एक अघोषित आर्थिक आपातकाल के गर्त में झोंक दिया है। इसकी बढ़ोत्तरी ने अब तक के स्थापित अर्थशास्त्र के नियमों को भी खारिज कर दिया है। अर्थशास्त्र की मान्यता है कि वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मांग और आपूर्ति के सिद्धांतों पर आधारित होता है। यानी कि जब बाजार में मांग के अनुपात में वस्तु की उपलब्धता अधिक होती है तो उसके मूल्य कम होते हैं। वहीं जब बाजार में उस वस्तु की आपूर्ति कम होती है तो उसके मूल्य बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महंगाई पर यह नियम लागू नहीं होता। इसे आश्चर्यजनक ही माना जाएगा कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है। कोई भी व्यक्ति जितनी मात्रा में चाहे, बहुत आसानी से उतनी मात्रा में खरीद कर सकता है, फिर भी उनके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष तो निकलता ही है कि वस्तुओं की उपलब्धता कहीं से बाधित नहीं है। अतएव बढ़ती महंगाई की जिम्मेदार कुछ अन्य ताकतें हो सकती हैं, जिनकी ओर हमारे सरकारी व्यवस्थापकों का ध्यान नहीं जा रहा है। होने को तो यह भी हो सकता है कि उदारीकरण के वरदान से पैदा हुए इन भस्मासुरों की ताकत अब वर-दाताओं के मुकाबले बहुत अधिक हो चुकी हो और उस ताकत के आगे वे अपने को निरुपाय तथा असहाय महसूस कर रहे हों। सच तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सिंडिकेट के हाथों अब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था है और वे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से विभिन्न उत्पादों के दामों में इजाफा करते रहते हैं।
- News Desk
1 comments:
बहुत मेहनत से तैयार की गई बहुत अच्छी प्रस्तुति।
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