भारत विभाजन के बुनियादी कारण


उन बुनियादी कारणों की रूपरेखा प्रस्तुत करना जिनकी वजह से विभाजन हुआ। इन कारणों में हैः पहला, ब्रिटिश कपट, दूसरा कांग्रेस नेतृत्व की ढ़लती उमर, तीसरा, हिन्दू-मुस्लिम दंगों की वस्तुपरक अवस्था, चौथा, जनता में साहस और सतर्कता की कमी; पांचवा, गांधी की अहिंसा; छठवाँ, मुस्लिम लीग की पृथकवादिता; सातवाँ, जो अवसर मिले उनका फायदा उठाने की अक्षमता; और आठवाँ, हिन्दू अहंकार।

अखंड भारती और विभाजन
कट्टर हिन्दूवाद द्वारा विभाजन के विरोध का कोई मतलब नहीं था, और न ही हो सकता था, क्योंकि देश का विभाजन करने वाली शक्तियों में एक शक्ति यही कट्टर हिन्दूवाद थी। यह वैसी ही थी जैसे कोई खूनी खून करने के बाद उस गुनाह के धक्के से पीछे हटता है। इसके बारे में कोई गलती नहीं होनी चाहिए। जिन्होंने अखंड भारत-अखंड भारत जोर-जोर से चिल्लाया, यानी वर्तमान जनसंघ और हिन्दूवाद की विचित्र अहिन्दू भावना वाले उसके पुरखों ने (अगर करतूतों के परिणाम की दृष्टि से देखें, न कि उनकी नीयत कि दृष्टि से) देश का विभाजन करने में ब्रिटेन और मुस्लिम लीग की मदद की है। उन्होंने एक ही देश के अन्दर मुसलमान को हिन्दू के करीब लाने का कोई जरा-सा भी काम नहीं किया। इस तरह का अलगाव ही विभाजन की जड़ बना। अलगाव के दर्शन को स्वीकार करना और साथ-ही-साथ, अखंड भारत की बात करना खुद को धोखा देने का गन्दा काम है। किसी युद्ध के संदर्भ में ही उनके इस काम का मतलब और मसरफ हो सकता है, जब वे खुद इतने ताकतवर हों कि अपने से अलग किये हुओं को दबा सके। इस तरफ का युद्ध कम-से-कम इस सदी में असम्भव है। इसलिए युद्ध के बिना अखंड भारत और हिन्दू-मुस्लिम अलगाव, इन दोनों अवधारणाओं को मिलाने से केवल विभाजन का विचार और मजबूत होता है और पाकिस्तान को मदद मिलती है। हिन्दूस्तान में मुसलमानों का विरोधी पाकिस्तान का दोस्त है। जनसंघी और हिन्दू ढब के सभी अखंड भारती पाकिस्तान के दोस्त हैं। मैं सच्चा अखंड भारती हूं। मैं विभाजन को पंसद नहीं करता। सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों लोग जरूर होंगे। लेकिन अविभाजित हिन्दुस्तान की ललक के प्रति सच्चे होने के पहले सिर्फ हिन्दू या सिर्फ मुसलमान नहीं बने रहना चाहिए।
सच्चे राष्ट्रवाद के दो फांटे हो गये थे। उसके एक फांटे ने तो विभाजन के विचार को अपना समर्थन दिया, जबकि दूसरे ने उसका विरोध किया। सच्चा राष्ट्रवाद सिर्फ जबान से या खामोशी से ही विरोध कर सका, उसमें सक्रिय ढंग से विराध करने की शक्ति नहीं थी। इसीलिए राष्ट्रवाद की मुख्य संस्था के आत्मसमर्पण और द्रोह में उसका विरोध आसानी से समा गया।
कम्युनिस्टों की गद्दारी भी, इसी तरह, कोई प्रमुख रोल अदा नहीं करती। उसके कारण कुछ पैदा नहीं होता, कारण और कहीं से पैदा होते हैं। कम्युनिस्टों के समर्थन से पाकिस्तान नहीं पैदा हुआ। उन्होंने ज्यादा से ज्यादा एक दाई का काम किया।

हिन्दू-मुस्लिम अलगाव का सिलसिला
पिछले आठ सौ बरसों के आपसी संबंधों में अलगाव और मेल के उतार चढ़ाव से हिन्दू और मुसलमान लगातार पीड़ित रहे और अलगाव पर ही कुछ ज्यादा जोर रहा। इससे एक राष्ट्र के अंदर इनकी भावात्मक एकता अभी तक नहीं हो सकी। साथ ही, हिन्दुस्तानी लोगों का स्वभाव समाधान, सहनशील स्वीकृति और आत्मसमर्पण की
कला इतनी मात्रा में सीख गया है कि इस धरती पर और कहीं भी गुलामी को विश्व-बंधुत्व या गद्दारी को राजनीति या परवशता को समझौता समझने की गलती नहीं होती। इन दो तत्वों ने हिन्दू-मुस्लिम समस्या को चलाया है। उनके बिना, ब्रिटिश कपट या कांग्रेसी नेताओं का बढ़ता हुआ बुढ़ापा इतिहास की बेमतलब तहसील बन कर रह जाते और इनके करण ऐसा कड़वा फल न निकलता जैसा कि निकला।
हिन्दू से मुसलमान के अलगाव का सिलसिला आजादी के बरसों में भी चला आया। आजादी के बरसों में भी मुसलमान को हिन्दू के नजदीक लाने के लिए, उनके मन से अलगाव के बीज खत्म करने के लिए कुछ भी नहीं किया गया। कांग्रेस सरकार का एक अक्षम्य अपराध यह है कि वह इन विलग आत्माओं को नजदीक लाने में असफल रही। वास्तव में, इसके लिए प्रयास करने की उसकी इच्छा ही नहीं रही।
इस अपराध के पीछे वोट फंसाने की तबियत और विश्वयारी का दर्शन है। इस देश के लगभग सभी राजनैतिक तत्व, विशेषतः ऐसे जो अपनी धर्मनिरपेक्षता पर घमण्ड करते हैं, इनसे पीड़ित हैं। धर्मनिरपेक्ष दलों ने अभी तक हिन्दू और मुसलमान को ऐसी अपील करने की जुर्रत नहीं की है कि जिससे उनके बुरे विचार या बुरी आदतें छूट सकें। स्वार्थ की इस ख्वाहिश को विश्वयारी के दर्शन की परार्थवादी तर्कसंगति मिल गयी। हर एक समस्या अलग-अलग निपटाने या उसका हल ढूंढ़ने की कोशिश करने की आवश्यकता को विश्वयारों ने महसूस नहीं किया है। वे यह मानकर चलते हैं कि उद्योगीकरण और आधुनिक अर्थव्यवस्था हिन्दू-मुस्लिम अलगाव को खत्म कर
देंगे। यह बेवकूफी से भरी कल्पना है, क्योंकि ऐसा रिश्ता है ही नहीं।

धर्म व इतिहास के घटक
राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक घटक, समूहों और जातियों को तोड़ते हैं, लेकिन ऐसी टूट के लिए वास्तविक शक्ति कहीं और से आती है- प्रतीकों और निर्गुण चीजों से। निःसंदेह, सहभोज या अंतर्विवाह जैसे सामाजिक, संपूर्ण रोजगार या राष्ट्रीयकरण या बराबरी जैसे आर्थिक और पिछड़ी जातियों और गुटों को प्रतिनिधित्व की गारंटी जैसे राजनैतिक हल जरूर निकालने चाहिए। इन हलों के बिना, अलगाव की समस्या को कभी खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन सिर्फ इन्हीं दलों के भरोसे वह हमेशा किसी न किसी रूप में, चाहे शांत या उग्र रूप में रहेगी। धर्म और इतिहास के घटकों पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। यह आदमी के दिल और दिमाग को कड़वा बनाते है। प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दूसरे के धर्म के प्रति आदर और समझ-बूझ पैदा हो। इन्हें पैदा करने के लिए धर्मो का ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन बेहतरीन तरीका है। ऐसे मामलों में चिकनी-चुपड़ी भावुकता उतनी ही बेमतलब है, जितनी कि कट्टरता विनाशकारी और विभानकारी है। धार्मिक मतों और विश्वासों की
एक तरफ उपलब्धियों और दूसरी तरफ उनकी खामियों-कमियों का संयमित और ठंडे दिल से मूल्यांकन लाभदायी होगा।


राम मनोहर लोहिया की पुस्तक से साभार


1 comments:

AMIT KUMAR LAKHERA said...

YADI HAMARE NETAO ME SWARTH KA BHAV NAHI HOTA TO BHARAT BIBHAJAN RUK JATA

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